जल में नौका / सुनो बकुल / सुशोभित
सुशोभित
जल में नौका है, नौका में जल नहीं है.
नौका में जल होगा तो नौका डूब ना रहेगी!
यों नौका डूब जावै तो कोई हानि नहीं है. काठ की नौका है. डूबकर गल रहेगी. शैवालों से हिल मिल रहेगी.
केवल नौका की ज़ंग लगी कीलें मछलियों की नींद में चुभती रहेंगी.
नौका डूब जावै तो यों कोई हानि नहीं है, किंतु नौका डूबे ही क्यूँ? जल पर निःशंक तिरती ही तो है, किसी का क्या बिगाड़ती है?
फिर जल में नौका का एक नयनाभिराम बिम्ब भी तो रचती है. इस दृश्य से अगर नौका को हटा दें तो भला क्या शेष रहेगा? और जो रहेगा, उसमें व्यंजना कैसे निर्मित होगी?
कला में, काव्य में, शिल्प में, छायांकन में उस व्यंजना का बड़ा महत्व होता है. साधुभाषा में उसे "पर्सपेक्टिव" कहते हैं.
सतह और पृष्ठभूमि का द्वैत, सरफ़ेस और डेफ़्थ का जक्स्टापोज़िशन, यही तो दृश्य को रूपक की व्यंजना देता है, नहीं तो हर दृश्य समतल है, एकआयामी है, उसमें सतहें नहीं, गहराइयां नहीं.
कवि अज्ञेय ने कहा था--
"एक तारा भर गया / आकाश की गहराइयां."
आकाश का घट अतल है. उसमें से कोई गूंज लौटकर नहीं आती. उसमें परिप्रेक्ष्य का आलोक नहीं है. और तभी एक सांध्यतारा उगता है और उसकी गहराइयों को भर देता है.
दृश्य अब एकरस नहीं है, उसमें एक व्यंजना है.
एक तारा. ज्यों दीप अकेला. ज्यों नदी का एक द्वीप. सागर की एक मुद्रा. एक वीणा असाध्य. समष्टि के समवेत में निज के गौरव का यह काव्य है, कवि अज्ञेय के अंतर्तम से जो हुआ रूपायित.
आकाश अतल है, किंतु एक तारा उसकी गहराइयों को भर सकता है.
कुएं में झांको तो जल में बनती परछाई उसकी सतह का अनुमान देती है.
निविड़ अंधकार में एक नन्हीं ली लपट तिमिर के कवच को बेधती भी है, उसकी इयत्ता को गहराती भी है, वैसा जॉन मिल्टन ने कहा था.
एक तह जहां दिखती है, वहां वस्तुगत संसार है. दूसरे का परिप्रेक्ष्य जहां बनता है, वहां काव्य का लोक है.
समय सीधी रेख में चलता है, किंतु अनुगूँजों से बनता है जीवन. जहाँ गूंज नहीं, गहराई नहीं, तहें नहीं, वहां दृश्य भी बिला जाएगा.
यह भोपाल की बड़ी झील है, जो कितनी अकेली होती, जो नहीं होती वहाँ पर अकेली वह नौका.
ना नाविक है, ना यात्रिक हैं, ना मत्स्यकन्याएं उसमें स्वप्न देखती हैं, किंतु दृश्य पूर्ण है!
कवि से शब्द लूं तो कहूं --
"सांझ. बुझता क्षितिज. मन की टूट टूट पछाड़ खाती लहर काली उमड़ती परछाइयां! तब एक नौका भर गई सागर की गहराइयां!"