देस बिराना / अध्याय 2 / भाग 5 / सूरज प्रकाश

Gadya Kosh से
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उसकी वज़ह से मैं हफ्ते भर से बेकार बना बैठा हूं। जनाब ग्यारह बजे तो सो कर उठते हैं। नहाने का कोई ठिकाना नहीं। खाने-पीने का कोई वक्त नहीं। यहां संकट यह है कि पूरी ज़िंदगी मैं हमेशा सारे काम अनुशासन से बंध कर करता रहा। जरा-सी भी अव्यवस्था मुझे बुरी तरह से बेचैन कर देती है। घूमने-फिरने के लिए निकलते-निकलते डेढ दो बजा देना उसके लिए मामूली बात है। तीन-चार घंटे घूमने के बाद ही जनाब थक जाते हैं और फिर बेताल डाल पर वापिस।

पूरे हफ्ते से उसका यही शेड्यूल चल रहा है। उसकी शॉपिंग भी माशा अल्लाह अपने आप में अजूबा है। पता नहीं किस-किस की लिस्टें लाया हुआ है। यह भी चाहिये और वह भी चाहिये। अब अगर किसी और ने सामान मंगाया है तो उसके लिए पैसे भी तो निकाल भाई। लेकिन लगता है उसके हाथों ने उसकी जेबों का रास्ता ही नहीं देखा। उसकी खुद की हजारों रुपये की शॉपिंग करा ही चुका हूं। उसमें मुझे कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन किसी ने अगर कैमरा मंगवाया है या कुछ और मंगवाया है तो उसके लिए भी मेरी ही जेब ढीली करा रहा है। उसके खाने-पीने में मैंने कोई कमी नहीं छोड़ी है। मैं खुद रोज़ाना ढाबे में या किसी भी उडिपी होटल मे खा लेता हूं लेकिन उसे रोज ही किसी न किसी अच्छे होटल में ले जा रहा हूं। इसलिए जब उसने कहा कि मैं गोवा घूमना चाहता हूं तो मुझे एक तरह से अच्छा ही लगा। उसे गोवा की बस में बिठा दिया है और हाथ में पांच सौ रुपये भी रख दिये हैं। तभी पूछ भी लिया है - आजकल रश चल रहा है। ऐन वक्त पर टिकट नहीं मिलेगी। तेरा कब का टिकट बुक करा दूं?

उसे अच्छा तो नहीं लगा है लेकिन बता दिया है उसने

- गोवा से शुक्रवार तक लौटूंगा। शनिवार की रात का करा दें।

और इस तरह से बिल्लू महाराज जी मेरे पूरे ग्यारह दिन और लगभग आठ हजार रुपये स्वाहा करने के बाद आज वापिस लौट गये हैं। लेकिन जाते-जाते वह मुझे जो कुछ सुना गया है, उससे एक बार फिर सारे रिश्तों से मेरा मोह भंग हो गया है। उसकी बातें याद कर करके दिमाग की सारी नसें झनझना रही हैं। कितना अजीब रहा यह अनुभव अपने ही सगे भाई के साथ रहने का। क्या वाकई हम एक दूसरे से इतने दूर हो गये हैं कि एक हफ्ता भी साथ-साथ नहीं रह सकते। उसके लिए इतना कुछ करने के बाद भी उसने मुझे यही सिला दिया है....।

गोल्डी से इस बीच एक दो बार ही हैलो हो पायी है। वह भी राह चलते। एक बार बाज़ार में मिल गयी थी। मैं खाना खा कर आ रहा था और वह कूरियर में चिट्ठी डालने जा रही थी। तब थोड़ी देर बात हो पायी थी।

उसने अचानक ही पूछ लिया था - आप आइसक्रीम तो खा लेते होंगे?

- हां खा तो लेता हूं लेकिन बात क्या है?

- दरअसल आइसक्रीम खाने की बहुत इच्छा हो रही है। मुझे कम्पनी देंगे ?

- ज़रूर देंगे। चलिये।

- लेकिन खिलाऊंगी मैं।

- ठीक है आप ही खिला देना। तब आइसक्रीम के बहाने ही उससे थोड़ी बहुत बात हो पायी थी।

- बहुत थक जाती हूं। सारा दिन शहर भर के चक्कर काटती हूं। न खाने का समय न वापिस आने का।

- मैं समझ सकता हूं लेकिन आपके सामने कम से कम सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक की समस्या तो नहीं है।

- वो तो खैर नहीं है। फिर भी लगता नहीं इस चाची नाम की लैंड लेडी से मेरी ज्यादा निभ पायेगी। किराया जितना ज्यादा, उतनी ज्यादा बंदिशें। शाम को मैं बहुत थकी हुई आती हूं। तब सहज-सी एक इच्छा होती है कि काश, कोई एक कप चाय पिला देता। लेकिन चाची तो बस, खाने की थाली ले कर हाज़िर हो जाती है। अब सुबह का दूध शाम तक चलता नहीं और पाउडर की चाय में मज़ा नहीं आता।

- मैं आपकी तकलीफ़ समझ सकता हूं।

- और भी दस तरह की बंदिशें हैं। ये मत करो और वो मत करो। रात दस बजे तक घर आ जाओ। अब मैं जिस तरह के जॉब में हूं, वहां देर हो जाना मामूली बात है। कभी कोई कॉल दस मिनट में भी ठीक हो जाती है तो कई बार बिगड़े सिस्टम को लाइन पर लाने में दसियों घंटे लग जाना मामूली बात है। तब वहां हम सामने खुला पड़ा सिस्टम देखें या चाची का टाइम टेबल याद करें।

- किसी गर्ल्स हॉस्टल में क्यों नहीं ट्राई करतीं।

- सुना है वहां का माहौल ठीक नहीं होता और बंदिशें वहां भी होंगी ही। खैर, आप भी क्या सोचेंगे, आइसक्रीम तो दस रुपये की खिलायी लेकिन बोर सौ रुपये का कर गयी। चलिये।

हम टहलते हुए एक साथ लौटे थे।

कहा था उसने - कभी आपके साथ बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे।

उसके बाद एक बार और मिली थी वह। अलका दीदी के घर से वापिस जा रही थी और मैं घर आ रहा था।

पूछा था तब उसने - कुछ फिक्शन वगैरह पढ़ते हैं क्या?

- ज़िंदगी भर तो भारी-भारी टैक्निकल पोथे पढ़ता रहा, फिक्शन के लिए पहले तो फुर्सत नहीं थी, बाद में पढ़ने का संस्कार ही नहीं बन पाया। वैसे तो ढेरों किताबें हैं। शायद कोई पसंद आ जाये। देखना चाहेंगी ?

- चलिये। और वह मेरे साथ ही मेरे कमरे में वापिस आ गयी है।

यहां भी पहली ही बार वाला मामला है। मेरे किसी भी कमरे में आने वाली वह पहली ही लड़की है।

- कमरा तो बहुत साफ सुथरा रखा है। वह तारीफ करती है।

- दरअसल यह पारसी मकान मालिक का घर है। और कुछ हो न हो, सफाई जो ज़रूर ही होगी। वैसे भी अपने सारे काम खुद ही करने की आदत है इसलिए एक सिस्टम सा बन जाता है कि अपना काम खुद नहीं करेंगे तो सब कुछ वैसे ही पड़ा रहेगा। बाद में भी खुद ही करना है तो अभी क्यों न कर लें।

- दीदी आपकी बहुत तारीफ कर रही थीं कि आपने अपने कैरियर की सारी सीढ़ियां खुद ही तय की हैं। ए कम्पलीट सैल्फ मेड मैन। वह किताबों के ढेर में से अपनी पसंद की किताबें चुन रही है।

हँसता हूं मैं - आप सीढ़ियां चढ़ने की बात कर रही हैं, यहां तो बुनियाद खोदने से लेकर गिट्टी और मिट्टी भी खुद ही ढोने वाला मामला है। देखिये, आप पहली बार मेरे कमरे में आयी हैं, अब तक मैंने आपको पानी भी नहीं पूछा है। कायदे से तो चाय भी पिलानी चाहिये।

- इन फार्मेलिटीज़ में मत पड़िये। चाय की इच्छा होगी तो खुद बना लूंगी।

- लगता है आपको संगीत सुनने का कोई शौक नहीं है। न रेडियो, न टीवी, न वॉकमैन या स्टीरियो ही। मैं तो जब तब दो-चार घंटे अपना मन पसंद संगीत न सुन लूं, दिन ही नहीं गुज़रता।

- बताया न, इन किताबों के अलावा भी दुनिया में कुछ और है कभी जाना ही नहीं। अभी कहें आप कि फलां थ्योरी के बारे में बता दीजिये तो मैं आपको बिना कोई भी किताब देखे पूरी की पूरी थ्योरी पढ़ा सकता हूं।

- वाकई ग्रेट हैं आप। चलती हूं अब। ये पांच-सात किताबें ले जा रही हूं। पढ़ कर लौटा दूंगी।

- कोई जल्दी नहीं है। आपको जब भी कोई किताब चाहिये हो, आराम से ले जायें। देखा, चाय तो फिर भी रह ही गयी।

- चाय ड्यू रही अगली बार के लिए। ओके।

- चलिये, नीचे तक आपको छोड़ देता हूं।

जब उसे उसके दरवाजे तक छोड़ा तो हँसी थी गोल्डी - इतने सीधे लगते तो नहीं। लड़कियों को उनके दरवाजे तक छोड़ कर आने का तो खूब अनुभव लगता है। और वह तेजी से सीढ़ियां चढ़ गयी थी।

घर लौटा तो देर तक उसके ख्याल दिल में गुदगुदी मचाये रहे। दूसरी-तीसरी मुलाकात में ही इतनी फ्रैंकनेस। उसका साथ सुखद लगने लगा है। देखें, ये मुलाकातें क्या रुख लेती हैं। बेशक उसके बारे में सोचना अच्छा लग रहा है लेकिन उसे ले कर कोई भी सपना नहीं पालना चाहता।

अब तक तो सब ने मुझे छला ही है। कहीं यहां भी...!

बिल्लू को गये अभी आठ दिन भी नहीं बीते कि दारजी की चिट्ठी आ पहुंची है।

समझ में नहीं आ रहा, यहां से भाग कर अब कहां जाऊं। वे लोग मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देते। क्या यह काफी नहीं है उनके लिए कि मैं उन पर किसी भी किस्म का बोझ नहीं बना हुआ हूं। मैंने आज तक न उनसे कुछ मांगा है न मांगूंगा। फिर उन्हें क्या हक बनता है कि इतनी दूर मुझे ऐसे पत्र लिख कर परेशान करें।

लिखा है दारजी ने

- बरखुरदार

बिल्लू के मार्फत तेरे समाचार मिले और हम लोगों के लिए भेजा सामान भी। बाकी ऐसे सामान का कोई क्या करे जिसे देने वाले के मन में बड़ों के प्रति न तो मान हो और न उनके कहे के प्रति कोई आदर की भावना। हम तो तब भी चाहते थे और अब भी चाहते हैं कि तू घर लौट आ। पुराने गिले शिकवे भुला दे और अपणे घर-बार की सोच। आखर उमर हमेशा साथ नहीं देती। तू अट्ठाइस-उनतीस का होने को आया। हुण ते करतारे वाला मामला भी खतम हुआ। वे भी कब तक तेरे वास्ते बैठे रहते और लड़की की उमर ढलती देखते रहते। हर कोई वक्त के साथ चला करता है सरदारा.. और कोई किसी का इंतजार नहीं करता। हमने बिल्लू को तेरे पास इसी लिए भेजा था कि टूटे-बिखरे परिवार में सुलह सफाई हो जाये, रौनक आ जाये, लेकिन तूने उसे भी उलटा सीधा कहा और हमें भी। पता नहीं तुझे किस गल्ल का घमंड है कि हर बार हमें ही नीचा दिखाने की फिराक में रहता है। बाकी हमारी दिली इच्छा थी और अभी भी है कि तेरा घर बस जाये लेकिन तू ही नहीं चाहता तो कोई कहां तक तेरे पैर पकड़े। आखर मेरी भी कोई इज्जत है कि नहीं। अब हमारे सामने एक ही रास्ता बचता है कि अब तेरे बारे में सोचना छोड़ कर बिल्लू और गोलू के बारे में सोचना शुरू कर दें। कोई मुझसे यह नहीं पूछने आयेगा कि दीपे का क्या हुआ। सबकी निगाह तो अब घर में बैठे दो जवान जहान लड़कों की तरफ ही उठेगी।

एक बार फिर सोच ले। करतारा न सही, और भी कई अच्छे रिश्तेवाले हमारे आगे पीछे चक्कर काट रहे हैं। अगर बंबई में ही कोई लड़की देख रखी हो तो भी बता, हम तेरी पसंद वाली भी देख लेंगे।

तुम्हारा,

दारजी...।

अब ऐसे खत का क्या जवाब दिया जाये!