नमक का कर्ज़ / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
शाम को टहलने निकलने वाला कुछ न कुछ तो खाता-पीता ही है। कुछ भी चना-चबैना, दूध-शकर। दोना लेकर दो पल बैठता ही है। वैसे ही हम भी हैं।
बैठे-बैठे किताब पढ़ी, बैठे-बैठे फ़िल्म देखी, बैठे-बैठे दफ़्तर में कम्प्यूटर चलाया। बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम? लिहाज़ा, रोज़ का यही नियम, कि दीया-बत्ती के समय तनिक दो-चार किलोमीटर टहल आएं। टहलते-टहलते जहां जो दिखा, उस दिन जैसा मन हुआ, वैसा कुछ न कुछ खा भी आएं। रात का भोजन तो देरी से होगा। तो सर्दियों में गाजर हलवा, मूंग हलवा का नियमित सेवन। कभी-कभार कड़ाह में ओंटाया केसर-दूध। गर्मियों में कुल्फ़ियां, श्रीखण्ड और लस्सियां, फलों के रस और चाट, आम का पना। भूख लगी हो तो सदाबहार कचौड़ियां, पोहे, वडापाव, और सबसे बेहतर स्वीट कॉर्न। मकई के मीठे दानों में भाप की उसांस। तिस पर ग्यारह क़िस्म के मसाले- नीबू का सत, काली मिर्च की बुरक, हरी धनिया की पत्ती, जीरावन का चूर्ण।
रोज़ का आना-जाना तो रोज़ का दुआ-सलाम। चेहरा देखकर पहचानने वाले जनवृन्द। एक भाई तो दूर से देखकर ही हलुवे का दोना बनाकर रख देता कि भैयाजी आ रहे हैं। एक भाई कुल्हड़ वाला दूध थमाते कहता, बस जाड़े के एक-दो दिन और, अब गर्मियों में फालूदा खिलाएंगे। गुप्ता जी पोहा-उस्ताद थे। पूछा, ये ठेला कब से लगाते हो। जवाब मिला- सत्रह साल हो गए। सत्रह साल- एक ही जगह पर- रोज़ वही पोहा, चाय, शेंगदाना, बीड़ी, गुटखा।
स्वीट कॉर्न वाला लम्बे बाल रखता और उसके हावभाव में बड़ी स्त्रियोचित नज़ाकत मालूम होती। कहता, मिठाईलाल अपनी दुकान की मिठाई नहीं खाता, पर मैं तो रोज़ अपने यहां के स्वीटकॉर्न खाता हूं। अच्छा खाऊंगा तभी तो ग्राहक देवता को अच्छा खिलाऊंगा। उसके पास में एक चाय वाला बैठता, जो जाफ़रानी चाय बन-मस्के के साथ देता। ये करामाती मसाला कहां से लाए, पूछो तो नहीं बतलाता। इतना ही कहता कि जूना शहर में घोड़ा-नक्कास रोड पर एक अत्तार की दुकान है। ख़ुद खोज लो तो मान जाएं।
उधर वडापाव वाले से लहसुन की लाल चटनी को लेकर नित्य की खटपट। एक दिन खाकर सौ रुपए का नोट निकाला। पैसे छुट्टे नहीं मिले। भाई ने कहा, कोई बात नहीं, आपके पास जब हों, तब ले आइयेगा। हमने कहा, तुम ही ये सौ रुपए क्यों नहीं रख लेते, जब छुट्टे हो जाएं तब दे देना। उसने कहा, कैसी बात करते हो साहब? अपना तो रामभरोसे हिंदू होटल है, आपसे रोज़ की राम-राम है। आप तो एक बार का नहीं दो तो भी कोई बात नहीं। किंतु हम चौराहे तक जाकर कुछ गजक वग़ैरा ले आए, समय रहते उनको छुट्टा दे गए। उधार प्रेम की कैंची जो ठहरी।
फिर एक रोज़ की बात है। हम टहलने निकले तो सब मंगल। क्या बात है? आज कहीं कोई तीज-तेवार तो नहीं? कोई ग्रहण-व्रहण तो नहीं। ये कहीं कोई दिखता क्यूं नहीं? दूसरा दिन भी वैसा ही गया। तीसरा भी। फिर पान-गुटखा वाले से लौंग की थैली लेते पूछा तो मालूम हुआ, नगर निगम की गैंग आई थी। गुप्ता का ठेला उठाकर ले गई। जाफ़रानी चाय वाले की गुमटी उलट दी। मिठाईलाल को तमीज़ से दूध का कड़ाह अंदर रखने को बोल दिया। कि कड़ाह की किनोर से सड़क रुक रही थी। वडापाव वाला तो ऐसा नदारद हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग। पूरा रस्ता उजाड़ हो गया। सांझ ढले की महीन भूख कोई बड़ी बात न थी, पर मन को खटका कि ग़रीब-ग़ुरबों की रोज़ी पर लात पड़ गई।
किंतु, बड़े सेठ की दुकान तो वहीं की वहीं रही। सुनार की पेढ़ी को कोई हाथ लगाकर दिखा दे। सर्राफ की चौकी अपनी जगह पर बदस्तूर। एक चाय-पाव वालों से ही नगर के रस्ते जाम होते थे, उसकी शोभा धूमिल हो रही थी। ग़रीब का सौ-पचास रुपया कमाना सरकार की आंख में खटक गया। ये कौन-सी बात हुई? जहां इतनी दुकानें थीं, थोड़ी और सही। पंक्ति से लगवा देते। युक्तियुक्त कर देते। एक भलामानुष कांस्टेबल खड़ा कर देते। पर हटाया क्यों?
फिर बहुत दिन बीते। धीरे-धीरे करके सहमे हुए चूहों की तरह वो एक-एक कर दिखाई दिए। गुप्ता जी ने ओटले पर ही पोहे की थड़ी लगा दी। कुशलक्षेम पूछने पर बोले, मैं तो घर पर था, आसपास के मित्रों ने फ़ोन करके बताया कि नगर निगम वाले ठेला तोक ले गए हैं। अगले दिन दौड़ता-भागता निगम पहुंचा, पर उन लोगों ने ठेला नहीं लौटाया। उसमें माल भी लदा था। सब ख़राब हो गया। ये कहते हुए उन्होंने मेरी चिर-परिचित पोहे की पुड़िया आगे बढ़ाई- डबल सेंव, प्याज़, कोथमीर, बग़ैर शेंगदाना।
दस रुपए में एक आलू परांठा बनाने वाले दद्दा मुख्य सड़क से अंदरून गली में तबादला ले गए। भूखे पेट को क्या सड़क और क्या गली, तो वहीं उनकी गुमटी गुलज़ार हो रही। फिर एक दिन चाय वाला अपने स्टोव्ह समेत नमूदार हुआ। को ख़ां, ख़ैरियत तो है, दुश्मनों की नज़र तो नहीं लग गई, कहने पर मुस्कराया। घोड़ा-नक्कास रोड के जाफ़रीन मसाले वाली वही तीखी मुस्कान। फिर वडापाव वाला दिखा, साथ में एक इडली वाले को भी ले आया। नगर निगम वाले आकर भगाएंगे तो भाग जाएंगे, तब तक तो गिराकी करें। घर पर हाथ धरे कब तक बैठें? हमने कहा, ओए शाब्बाश, इसी बात पे पाव खिलाओ, लस्सन-चटनी तेज़।
सबसे देरी से आया, बचन सिंह। उसके आते-आते मौसम-बदली हो गई। जाड़े में मूंगफली का ठेला लगाता था, अब फलों की चाट लेकर हाज़िर हुआ। मेरे पास एक अमरूद और चाक़ू था, मैं नमक लेने की गरज़ से गया। उसने चुटकी भर नमक लेकर पुड़िया बांध दी। मैंने कहा, अमरूद ना होता तो आज तुम्हारे यहां फ्रूट-चाट खाता, पक्का। अभी तरबूज़ का मौसम आने दो, फिर तो अपनी रोज़ की राम-राम है। वो मुस्कराया। मैंने बोला, नमक के कितने दे दूं? उसने मेरी ओर बेचारगी से देखा। मुझे लज्जा हो आई।
मैं जानता था, वो नमक चार आने का भी नहीं था, फिर भी बिना कुछ लिए-दिए ले जाते अच्छा नहीं लगता था। मैंने एक कलदार आगे बढ़ाया और कहा रख लो। बात पैसे की नहीं, व्यवहार की है। उसने कुछ नहीं कहा। सिक्का ले लिया और टाट के नीचे सरका दिया। मैंने मन ही मन सोचा, एक रुपया देकर तो मैं इन लोगों के नमक का क़र्ज़ नहीं चुका सकता। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि नगर निगम वाले श्यामला हिल्स और बड़ी झील पर ही सलाम ठोंके, सदर मंज़िल तक ही महदूद रहें, इधर का रुख़ ना करें। ग़रीब-ग़ुरबे चार पैसे कमाएं, दस जन की दुआ लेकर घर जाएं, इसमें नाहक़ ही खलल डालने से भला कौन-सा नगर-नियोजन सिद्ध हो जाना है? माना कि भारी राजधानी है भोपाल!