शीतलपेय / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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शीतलपेय
सुशोभित


मैंने जीवन में पहली बार सन् बानवे में शीतलपेय पिया था।

सन् बानवे : वो एक जादुई साल था। उसी साल उज्जैन में सिंगत (कुम्भ) का मेला लगा था, उसी साल क्रिकेट विश्वकप हुआ था, उसी साल बाज़ार नए और अनोखे सामानों से लद गए थे, उस साल सैटेलाइट टेलीविज़न का अवतरण हमारे छोटे से क़स्बे में हुआ था और अचानक सबकुछ बदल गया था।

सन् बानवे में जो नई चीज़ें मेरी ज़िंदगी में शामिल हुईं, उनमें शीतलपेय भी था। या बेहतर होगा अगर कहूं, शीतलपेय की तृष्णा।

क्रिकेट विश्वकप के बीच में तब एक विज्ञापन आया करता था। प्रोडक्ट का नाम था- लहर सेवेन अप। एक कथकली नृत्यांगना अपने कमरे में नृत्य कर रही है। दरवाज़े पर डिलीवरी बॉय दस्तक देता है। वह धीरे-धीरे चलकर आती है, उसके घुंघरूओं की रुनझुन रुनझुन हमारे कानों में पड़ती है। वह दरवाज़ा खोलती है- नृत्याभ्यास के कारण स्वेदसिक्त। वह हांफ रही है! डिलीवरी बॉय के हाथ से लहर सेवेन अप लेती है और मुंह से लगाकर पूरी बोतल पी जाती है।

कथकली नृत्यांगना के हाथ में कॉर्बोनेटेड ड्रिंक की बोतल! यह एक ऐसा बिम्ब था, जिसकी सन् बानवे से पूर्व कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

किंतु जिह्वा पर "शीतलपेय" के तीक्ष्ण-तिक्त अम्ल की प्रथम अनुभूति का विषाद मेरे मन में आज भी उतना ही सजीव और सम्मुख है, जैसे मई की वह म्लानमुख मध्याह्न! यह भी तो मई है ना! किंतु छब्बीस साल गुज़र गए!

दस वर्ष की वय थी। महाकुम्भ चल रहा था और अंकपात क्षेत्र में विराजे थे तांत्रिक चंद्रास्वामी। बड़ी धाक थी उनकी। बड़ा कौतूहल था। लोग पंक्तिबद्ध होकर उनके दर्शन करते, उन्हें देखकर अभिभूत हो जाते थे। उनके नाम से जुड़ी किंवदंतियों का कोई पारावार नहीं था।

परिवार में हम चार जन थे- पिता माता दो पुत्र। संध्या को भोजन उपरांत मेला देखने अंकपात क्षेत्र की ओर निकले। तांत्रिक महाराज के दर्शन का मनोरथ! सो दर्शन किए। लौटने को हुए कि कालभैरव के आगे शीतल पेय की थड़ी दिखी! ललक से मन जुड़ा गया।

बीती सदी की आखिरी दहाई थी। धीरे-धीरे खंख हो रही थी पुरानी दुनिया और पहर-दर-पहर फैल रहा था नई दुनिया का पसारा, जिसमें सैटेलाइट की छतरियां, पेशेवर कुश्तियां, मोहन कपूर की "सांप सीढ़ी" और शीतल पेय के मनमोहक विज्ञापन। किंतु कभी चखा नहीं था! क्या भरा होगा शीतल पेय की उन हरी बोतलों के भीतर, कौन सा "रामरस", मन में यही कौतूहल बना रहता, दूरदर्शन पर प्रिय धारावाहिक समाप्त होने के बाद भी!

मई, बानवे की उस शाम कालभैरव के आगे शीतलपेय की वह थड़ी दिखी तो ठान लिया हठ कि आज तो यही रसपान करेंगे। मन मारकर पिता ने सहमति दी। पंद्रह रुपए की तीन बोतलें आईं तो दिल धक्क से रह गया!

उन दूरस्थ दिनों में पंद्रह रुपए कुबेर के कोषागार से कम ना थे। मेरे पिता कोठी पर पान-तमाखू की दुकान लगाते थे और दिन में तीस रुपए कमाते थे! ये वो ज़माना था, जब कार्तिक चौक में टीटू की दुकान पर मिलने वाली आठ आने की पोहे की पुड़िया भी दूभर थी। चार आने का "झम्मक लड्डू" स्वप्नवत था। बीस नए पैसे की "बम्बई की मिठाई" और दस पैसे के "गुड़िया के बाल" यदा-कदा खा सकते थे। तब जामुन-करौंदे के दोने ही थे, जो लगभग बेभाव थे। सबसे बड़ी राहत यह थी कि एक रुपए में संतरे की बीस गोलियां आ जाती थीं। उन्हें ही जेब में कंचों की तरह भरकर हम पूरी संध्या उत्फुल्ल रहते।

जब पांच रुपए की एक शीतल पेय की बोतलें पेश की गईं तो अंतःकरण अपराध बोध से भर गया।

खट्ट से खोली बोतलें, उमच आया झाग तो सशंक हो उठा मन!

पहला घूंट पीते ही जैसे जल गई जिह्वा। कंठ में कंटक उग आए। कहीं यकृत को तो ना गला देगा यह तीक्ष्ण कड़वा अम्ल? कल्पना तो यह थी कि खस के शरबत, ईख के रस या कच्चे आम के पने जैसा ही मज़ेदार होगा इन हरी लुभावनी बोतलों का "शीतलपेय"।

तो क्या वो सारे विज्ञापन झूठ थे? उस नृत्यांगना की वह परितृप्ति छलावा थी? छी:, कितना गंदा स्वाद!

खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। तीन घूंट पीकर छोड़ दिया। पिता ने पिया मेरे हिस्से का शेष शीतलपेय!मन खिन्न हो गया।

फिर गढ़कालिका पर रामफल दिखे तो भी नहीं खाए, सिंघाड़े देखकर मुंह फेर लिया। घर लौटे, सांझ की बची खिचड़ी खाकर सो रहे।

दुःस्वप्न में भोर तक उफनता रहा शीतल पेय का फेन। जिह्वा पर अम्ल की तिक्त अनुभूति देर तलक बनी रही!

सुशोभित

[ पुनश्च : आज पांच साल का मेरा बेटा मुंह से शीतलपेय की बोतल लगाकर गटागट पी जाता है। कोक, पेप्सी, स्प्राइट, थम्सअप। फिर मुस्कराकर कहता है- "चलो पापा, आज कुछ तूफ़ानी करते हैं।" जब वह बड़ा हो जाएगा, और पापा की यह आपबीती पढ़ेगा तो यही ना सोचेगा कि पापा तो गोबरगणेश थे! ये थोड़े ना सोचेगा कि वो सदी ही दूसरी थी! उस वक़्त के अफ़साने ही और थे! ]