परिशिष्ट 2 : आलूबुखारों की आमद / अपनी रामरसोई / सुशोभित

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परिशिष्ट 2 : आलूबुखारों की आमद
सुशोभित


समन्दरे-हिंद की तलहटी में

काई औ शैवालों की सम्पृक्त‍ि

में पगी जैसी नमी होती है

उससे भी गीला होता है

आलू बुख़ारों का अंतस्तल।


सांध्य-नभ की

किनोर सा कत्थई

सिमुर्ग के कंठ सा सुर्ख

पहाड़ों की पतली धूप

में सींझा खटमिट्ठा

मृदुल, रसवंत।


आड़ू का बिरादर है मगर

बरख़ुरदार उससे तेज़तर्रार

अनुप्रस्थ काट से देखो कभी

इसके रेशों का अनुचिंतन

त्रिज्याओं पर रक्त‍िम

परिधि पर उन्मन।


आसमान से भले ही

आलू बुख़ारों के गुच्छे सी दिखे

बुख़ारा की मस्ज‍िदों के

ग़ुम्बदों की लड़ियां

मगर ये तो उज़्बेकी नहीं

काकेशियाई मेवा है।


हां अज़रबैजानी दोशीज़ाओं के

रुख़सार ज़रूर आलूबुख़ारों की मानिंद

सुर्खरू सुलगते थे ऐसा पढ़ा है

आर्मेनियाई अफ़सानों की किताबों में!


और इधर पच्छ‍िम में

जिलान के जंगलों के भीतर

अनारों की आगजनी को

मात देता अहले-फ़ारस का

वह सुर्ख सितारा।


लीचियां छीलना शऊरो हुनर है

कटहल और अनानास छीलना जीवट

पर सब्र की इतनी दौलत अब कहां

मेरे मन को तो अधिक रुचती है

आलू बुख़ारों की गीली

तन्मय सम्मति।


लालबाग पर आज की शाम

लेने गया था लंगड़ा आम

लेकर लौटा आलूबुख़ारे।


अगली बारिशों में मिलेंगे

मेरे सरताज भाई पर अभी तो

पहाड़ों के फलों का मौसम है

जिन पर तुहिन का नहान।


मुबारक़ हो सबको बहोत बहोत

फलमंडी में आलूबुख़ारों की

नई फ़स्ल की आमद।