परिशिष्ट 3 : सिंघाड़े / अपनी रामरसोई / सुशोभित
सुशोभित
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |
लालबाग से फूटी कोठी
पैदल जा रहा था,
महूनाके पर दीखे
सिंघाड़े।
कितना मुदित हो गया मन!
अहा, जैसे रात्रितिमिर में
दीपता हुआ ताराकाश।
हमने दो पाव लिए, राहभर खाते-खाते चले।
कुछ अभी गीले ही थे,
ग्रामसरोवर की नमी से भरे।
थोड़े मीठे, थोड़े कसैले।
यों ही नहीं ये
"पानी-फल" कहलाते।
और कुछ थे शुष्क,
एकदम मेवों की तरह।
स्वाद में अखरोटों को भी
करते मात!
हम रुक-रुककर चलते जाते,
बीच-बीच में नाख़ूनों से
कुरेदकर सिंघाड़े खाते
अंगुलियों पर लगाते
कालिख।
चोइथराम मंडी में
सिंघाड़ों पर चढ़ाया होगा
अजनोद से आए किसानों ने
काक की पांख-सा कालिमा का वह रंग
ताकि उनके अंतस का गौरधवल
मणियों सा दमके।
कि तभी - धत्तेरे की - देखा कि थैली तो फटी थी!
राहभर जाने कितने सिंघाड़े गिर गए होंगे!
मन बुझ गया!
चलती सड़क थी
जाने कितने कुचल गए होंगे
तीव्रगामी वाहनों के पहियों तले
करुणा से भरा मेरा क्लान्त मन
जलदेवता से क्षमायाचना करते
करने लगा कल्पना।
और जो ना कुचले होंगे
वे सफ़ेद तितलियों की तरह
व्याप गए होंगे तिमिर की किनोर तक
अब इस कल्पना से किंचित
मुदित हो गया मन।
तह करके ज़ेब में रख ली थैली
संजोकर ले जाऊंगा घर!
बेटा पूछेगा कि पापा आज मेरे लिए क्या लाए
तो झट्ट से निकालकर दिखलाऊंगा वे सिंघाड़े
जैसे कि कोई जादू!
भोर के स्वप्न तक फिर गूंजती ना रहेगी मन में
सिंघाड़े सरीखी बेटे की श्वेत-धवल
दंतुरित मुस्कान।